वो नन्हीं सी गुड़िया,
दुनिया में आई,
रुई-सा बदन,
जैसे पंखुड़ी गुलाब की,
मुस्कुराई वो जब भी,
लगा वसंत ऋतू आई,
अंगुली पकड़ना,
कभी गिरना,
फिर संभलना,
वो खिलखिलाये जब भी,
पुष्प झरते हों जैसे,
उसकी बातें जैसे,
बहती ठंडी हवाएं !
परियों की बातें,
कुछ नानी की यादें,
मेरी आँखों में पढ़ती है,
अब अपना वो बचपन,
कुछ मिट्टी का संग,
कभी चूड़ियों के रंग,
अब भी उसको हैं भाते,
चेहरे पर उसके,
मुस्कुराहट हैं लाते.
सजाती थी वो,
जैसे डॉल को अपनी,
करती है श्रृंगार,
अपने मन का वो आज,
पढ़ती है वो,
पढ़ाती है मुझको,
अपनी बातों के पाठ,
अपनी यादों के साथ,
मां की जैसे,
बनती प्रतिबिम्ब है,
मेरा सदा होती,
सम्बल है वो,
बेटी भी वो,
बेटा भी है,
मेरे विश्वास की,
छाया है वह,
उसमें दिखता है मुझको,
एक अक्स अपना !
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