कसम

–राजगोपाल सिंह वर्मा

आँखें नम न होने देने की,
कसम खाई है मैंने,
क्यूँ नहीं तुम,
खुद ही दूर चले जाते,
मेरी इस अर्थहीन सी जिंदगी से,
जहाँ न मैं रहूँ,
न कोई याद मेरी,
गर रहे तो कुछ,
खट्टी या कड़वी बातें,
जो कसैला कर दें तुम्हारा स्वाद,
और कोशिश कर सको तुम,
फिर से,
मुझे भूल जाने की,
ताकि जी सको तुम,
अपने पंखों को फैलाकर,
उड़ने के लिए स्वछन्द आसमान में,
समेट सकूं मैं भी,
अपने घायल-से हो चुके डैने,
और प्राणान्त कर सकूं,
होकर निश्चिन्त !

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